किस्सा गणेशजी का परभणी में
(Based on true events)




(Based on true events)
गणेशजी ने इस बार कैलाश पर्वत से धरती की ओर प्रस्थान करने से पहले माता पारवती और पिता शंकरजी से हट्ट किया “इस वर्ष तो मेरे साथ आप दोनों को परभणी आना ही होगा, हर बार मै अकेला ही जाता हूँ, कई लोगों से सूना है की इस बार परभणी आथित्य सम्मान का “हॉट स्पॉट” हो गया है, हर कोई वहाँ जाना चाहता है, लोग बहोत ही प्यारे और अथिती प्रिय हो गये है, आप भी आ जाइये और इस सेवा का आनंद लीजिए” भोलेनाथ ने कहा “पुत्र आज मेरी इच्छा सबल नहीं है, फिर किसी दिन जाते है” गणेशजी हट्ट करने लगे, फिर भी भोलेनाथ की कुछ इच्छा नहीं हो रही थी. पास ही बैठी माता पारवती इस वार्तालाप को शान्ति से सुन रही थी, बोल उठी “तुम तो हर बार नहीं कह देते हो, चल कर देखे तो इस परभणी गाँव में क्या है” इश्वर बोले “देवी मेरा ही बनाया गाँव है, और मेरा ही इसे वरदान है और वह यह की कोई कितना भी चाहे, सिर्फ भाग्यवान और ह्रदय में निर्मल प्रेम लेकर जाने वाले को ही इस गाँवका अथिथ्य लाभ होता है, और यहाँ के लोगों की परीक्षा तो बिलकुल मत लेना कारण ऐसी इच्छा ही तुम्हे लोग ना मिलने का कारण बन सकती है और न जाने क्यों आज मेरे यहाँ जाने में मन दुविधा कर रहा है” देवी अन्नपूर्णा ने ठान लिया की इस बात की परीक्षा ले ही लेते है और हस कर बोली “चलो चलकर देख ही लेते है और वैसे भी हमें भाग्य की क्या की क्या जरूरत है ” भगवान् शंकर स्मिथ हास्य अपने गालों पर लाते हुए बोले “देवी, ये तो तुम वहाँ जाओ तो जानो, पवित्र मन से जाना ही उचित है, परीक्षक बनकर नहीं, मगर तुम कहती हो तो चलो अपने भाग्य के बल को इस गाँव जाकर देखते है”. प्रस्थान की प्रस्थावना देख गणेशजी खुशी से उछलते हुए बोले “जय हो”. जब प्रस्थान का वक्त आया तब थोड़ा सावधान हो कर भगवान् बोले “अगर हम ऐसे रूप में जायेंगे तो कोई भी हम पर विश्वास नहीं करेगा, यहाँ सिर्फ मूर्ती रूप में तुम्हे पहचाना जाएगा” तभी माता बोली “तो इसमें कठिनाई क्या है, चलो मूर्ती रूप धारण कर लेते है और देखते है सबकुछ स्तिथप्रद्न्य होकर”. माता को अपने सात चलते देख गणेशजी प्रसन्नता से फूले नहीं समा रहे थे और अगले ही क्षण तीनो परभणी रेलवे स्टेशन पर अवतरित हुए. रेलवे स्टेशन उन्होंने इसी लिए चुना क्यों की, आखरी आथित्य दर्शन और पर्भानिकरों की करतूत उन्हें देर रात तक इसी जगह होते देखा था.





अब वे क्या जाने यह गाँव कितना निराला था, हर उत्सव को लाभ या नुक्सान के में तोलने वाली यहाँ की व्यापारिक जनता इन सुन्दर मूर्तियों को देखते ही अपने व्यापार कुशलता से पास वाले आंध्र राज्य से आये खरीदारों को प्लेटफार्म पर ही सौदा कर तीनो को तगड़े दाम बेच दिया. शंकरजी का परिवार इससे पहले कुछ सोचे एक युवती ने आकाशवाणी कर दिया “कृपया ध्यान दीजिये, निजामाबाद की ओर जाने वाली पैसेंजर गाडी एक नंबर प्लेटफार्म के बजाय, तीन नंबर प्लेटफार्म पर आएगी, असुविधा के लिए खेद है” सौदागरों ने बड़ी गड़बड़ और सावधानी से गैर कानुनी तरीके से पहले शंकरजी और गणेशजी को तीन नुम्बर पर ले आये, माता पार्वती पीछे से लायी गयी. यहाँ आकर पता चला की गाडी थोड़ी लेट हो जाएगी, तब गणेशजी परभणी के स्टेशन पर पिता के पीठ पर बैठ, उनकी जटाए धर “घोडा घोडा” खेलते हुए नज़र आये. कुछ समय बाद जब रेल गाडी आई और पिता पुत्र डिब्बे में चढ़ बैठे, तो माता पारवती स्टेशन पर ही रह गयी और गाडी छूट गयी. यह सब इंसानी मायाजाल समझने में उन्हें वक़्त लग रहा था, हताश हुई माता गणेशजी को पुकारने लगी. हमेशा की तरह गणेशजी माता का दुःख देख नहीं पाए और अपने आप को और एक रूप में आकर माता की गोद में विराजमान हुए. माता थोड़ी प्रसंनित लग रही थी तभी फिर से आकाशवाणी हुई “सिकन्द्राबाद की ओर जाने वाली देवगिरी एक्सप्रेस गाडी प्लेटफार्म नंबर एक पर आएगी, गणेशजी जान गये इसी से पिताजी वाली गाडी धरी जा सकती है. माता के संग वो एक नंबर चले गये और देवगिरी एक्सप्रेस होते हुए अपने पिता के पास पहुँच गये. परभणी रेलवे स्टेशन पर ही उनकी पर्भानिकारों को मिलने की सारी आशा आकांक्षा ख़त्म हो गयी और उन्हें भोलेनाथ की बतायी बात याद आई. दूर से उन्हें लोगो के घोषणाये सुनाई दे रही थी:
“गणपती बाप्पा मोरया ~ पुढच्या वर्षी लवकर या”
(Dedicated to Shree, Hiranya, Ganesh, Manaswini, Saloni, Pratham,Dhruv, Pracheti and Simmilar species)
“गणपती बाप्पा मोरया ~ पुढच्या वर्षी लवकर या”
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